अपने गाँव की ओर
चलो चलें फिर अपने गाँव की ओर
नहीं लगता,नहीं लगता,नहीं लगता
मन अब इस ओर ....... चलो चलें
हसीन वादियों में
खुशगवार नजारों में
पहाड़ पर बर्फ बिछी होगी
चांदी ही चांदी हर तरफ बिखरी होगी
....... चलो चलें
फिर अपने गाँव की ओर
नहीं लगता
मन अब इस ओर ....... चलो चलें
रौनक जँहा लगी होगी
मौसम अपने पुरे मिजाज में होगा
जंहा कोई आतुर खड़ा होगा अब भी मेरे लिये
ओतप्रोत से मुझे गले लगाने के लिए
....... चलो चलें
फिर अपने गाँव की ओर
नहीं लगता
मन अब इस ओर ....... चलो चलें
प्रकृति जंहा अपने बहार में होगी
नित नये सृंगार में होगी
चलो वंहा अपनी तबियत भी बाग-बाग हो जाए
बैठे वंहा दो पल जंहा हम सुकून पायें
....... चलो चलें
फिर अपने गाँव की ओर
नहीं लगता
मन अब इस ओर ....... चलो चलें
चलो चलें फिर अपने गाँव की ओर
नहीं लगता,नहीं लगता,नहीं लगता
मन अब इस ओर ....... चलो चलें
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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